हमारे जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं जब हमें दूसरों की मदद करने का अवसर मिलता है। लेकिन यह मदद किस भावना से की जा रही है, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है। अगर हम केवल दिखावे या प्रशंसा पाने के लिए किसी की सहायता करते हैं, तो वह वास्तव में सेवा नहीं होती। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म (निःस्वार्थ कार्य) का सिद्धांत दिया है, जिसमें यह बताया गया है कि हमें फल की इच्छा किए बिना अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।
मेरे साथ घटी एक घटना ने मुझे यह सिखाया कि सच्ची मदद वही होती है जो बिना किसी स्वार्थ या पहचान के की जाए। मैं अपनी ऑफिस से घर लौट रहा था, तभी मैंने देखा कि मेरी ही कंपनी के दो कर्मचारी—एक लड़का और एक लड़की—सड़क पर अपनी बाइक खींच रहे थे। उनकी बाइक का पेट्रोल खत्म हो गया था और पेट्रोल पंप उनसे 3-4 किलोमीटर दूर था।
मदद करने का निर्णय
पहले तो मैं उन्हें देखकर आगे बढ़ गया, लेकिन मेरे मन में कुछ अजीब सा महसूस हुआ। मुझे लगा कि मुझे उनकी मदद करनी चाहिए। लेकिन मैं यह नहीं चाहता था कि वे यह जानें कि मैं उनके लिए पीछे मुड़ा हूँ। इसलिए मैं अपनी एक्टिवा को सड़क किनारे से घुमा कर उनके पीछे से आया और उन्हें बताया कि मैं उनकी बाइक को अपने पैर से धक्का देकर पेट्रोल पंप तक पहुंचा सकता हूँ।
पहले तो लड़के ने आश्चर्य से पूछा, “क्या आप हम दोनों को धक्का देकर ले जा सकते हैं?” मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, क्यों नहीं?” फिर मैंने धीरे-धीरे अपनी एक्टिवा से उनकी बाइक को धक्का देना शुरू किया और कुछ समय बाद हम पेट्रोल पंप पहुँच गए।
निःस्वार्थ भाव और गीता का संदेश
जब हम पेट्रोल पंप पर पहुँचे, तो वे दोनों बहुत खुश थे और मुझे धन्यवाद देने लगे। मैंने मन ही मन सोचा कि मुझे बस उनकी मदद करके चुपचाप चले जाना चाहिए था, क्योंकि भगवद गीता में कहा गया है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(श्रीमद्भगवद गीता 2.47)
इसका अर्थ है कि हमें केवल कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उसके फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
मुझे इस श्लोक की गहराई तब समझ आई जब मैंने गलती से उन्हें बता दिया कि मैं भी उनकी ही कंपनी में काम करता हूँ। यह बात मैं बताना नहीं चाहता था, लेकिन मेरे मुँह से अनजाने में निकल गई। इसके बाद मैं थोड़ा असहज महसूस करने लगा क्योंकि गीता के अनुसार, सच्ची सेवा वही होती है जो बिना किसी पहचान या प्रशंसा की इच्छा के की जाए।
गीता में एक और महत्वपूर्ण श्लोक है:
“त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।”
(श्रीमद्भगवद गीता 4.20)
अर्थात, जो व्यक्ति फल की आसक्ति को त्यागकर, स्वयं में संतुष्ट और किसी पर निर्भर न रहते हुए कार्य करता है, वही वास्तव में मुक्त आत्मा होता है।
मैं चाहता था कि यह मदद बिना किसी दिखावे के हो। मैं यह भी नहीं चाहता था कि वे मुझे धन्यवाद कहें, क्योंकि गीता में बताया गया है कि जब हम किसी की मदद करते हैं, तो हमें किसी प्रकार की प्रशंसा या मान्यता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
जीवन में सीख
इस घटना से मैंने यह सीखा कि हमें बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की मदद करनी चाहिए और जब तक आवश्यक न हो, हमें अपनी पहचान भी प्रकट नहीं करनी चाहिए।
हमारा उद्देश्य सिर्फ कर्म करना होना चाहिए, न कि उसके परिणाम पर ध्यान देना। जब हम बिना स्वार्थ के मदद करते हैं, तब ईश्वर हमें उसका उचित फल किसी न किसी रूप में देते हैं।
निष्कर्ष
भगवद गीता हमें सिखाती है कि निःस्वार्थ सेवा ही सच्ची सेवा है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, तो हमें इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए कि लोग हमें पहचानें या सराहना करें। इस घटना ने मुझे यह अहसास कराया कि सही मायने में सेवा वही होती है जो निःस्वार्थ भाव से की जाए।
अगर हम अपने जीवन में भगवद गीता के सिद्धांतों को अपनाएँ और बिना किसी दिखावे के सेवा करें, तो हम न केवल दूसरों की मदद कर सकते हैं बल्कि अपने आत्मिक विकास की ओर भी बढ़ सकते हैं।
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